सोमवार, 13 जून 2016

Aakhen aur Kaan


आँखें और कान

लेखक: विताली बिआन्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
जंगल की टेढ़ी-मेढ़ी नदी के किनारे पे इन्क्वोय-ऊदबिलाव रहता था. ऊदबिलाव की झोंपड़ी बढ़िया थी: उसने ख़ुद ही लकड़ियाँ छीली, ख़ुद ही पानी से उन्हें खींच कर लाया, ख़ुद ने ही दीवारें और छत बनाई.
ऊदबिलाव का फ़र-कोट भी बढ़िया है: सर्दियों में गर्माहट रहती है
, और पानी में भी उससे गर्माहट ही मिलती है, हवा भी उसे नहीं उड़ाती.



ऊदबिलाव के कान बड़े तेज़ हैं: चाहे मछली नदी में अपनी पूँछ फ़ड़फ़ड़ाए, चाहे कहीं पत्ता गिरे, उसे सब सुनाई देता है.
मगर ऊदबिलाव की आँखों ने उसे धोखा दे दिया: बहुत कमज़ोर हैं उसकी आँखें. ऊदबिलाव आधा-अंधा है
, सौ ऊदबिलावी-क़दमों की दूरी तक भी नहीं देख पाता.
मगर ऊदबिलाव के पड़ोस में, जंगल के साफ़-सुथरे तालाब में रहता था होत्तीन-राजहँस. ख़ूबसूरत था और घमण्डी भी, उसे किसी से भी दोस्ती करना अच्छा नहीं लगता, ‘नमस्ते’ भी बड़ी बेदिली से करता. अपनी सफ़ेद गर्दन उठाता, और पड़ोसी को बड़ी तुच्छता से देखता – उससे दुआ-सलाम करो, तो जवाब में बस, अपनी गर्दन ज़रा सी हिला देता.
एक बार क्या हुआ कि इन्क्वोय-ऊदबिलाव नदी के किनारे पर काम कर रहा था, मेहनत कर रहा था: पहाड़ी पीपल को दाँतों से छील रहा था. चारों ओर से छीलते-छीलते उसने तने को आधा कर दिया, ज़ोर की हवा आई और उसने पहाड़ी-पीपल को गिरा दिया. इन्क्वोय-ऊदबिलाव ने छील-छीलकर उसके लट्ठे बना दिए और एक-एक करके उन्हें नदी तक घसीटने लगा. एक लट्ठा अपनी पीठ पर डाल दिया, एक हाथ से उसे पकड़े रखा - बिल्कुल जैसे कोई आदमी चल रहा हो, बस दाँतों में पाइप की ही कमी है.
अचानक देखता है कि नदी में होत्तीन-राजहँस तैर रहा है, बिल्कुल नज़दीक से. इन्क्वोय-ऊदबिलाव ठहर गया, पीठ का लट्ठा नीचे गिरा दिया और सम्मानपूर्वक बोला:
”ऊज़्या-ऊज़्या!”
मतलब
, नमस्ते कह रहा है.       



 
राजहँस ने अपनी गर्वीली गर्दन उठाई
, हौले से सिर को हिलाया और कहा:
 “तूने तो इतना क़रीब आने के बाद मुझे देखा! मैंने तो तुझे नदी के मोड़ पर ही देख लिया था. ऐसी आँखों के कारण तो तू मर ही जाएगा.”
और वो इन्क्वोय-ऊदबिलाव का मज़ाक उड़ाने लगा:
 “अरे
, अंधे! तुझे तो शिकारी हाथों से ही पकड़कर जेब में डाल लेंगे.”
इन्क्वोय-ऊदबिलाव सुनता रहा
, सुनता रहा और फिर बोला:
इसमें शक की कोई बात ही नहीं है कि तुम्हारी नज़र मुझसे तेज़ है. मगर क्या तुम एक ख़ामोश-सी लहर की छपछपाहट को वहाँ से
, नदी के तीसरे मोड़ से, सुन सकते हो?
 “तू तो बस
, कल्पना कर रहा है, कोई लहर-वहर की छप-छप नहीं है. जंगल में एकदम ख़ामोशी है.”
इन्क्वोय-ऊदबिलाव ने इंतज़ार किया
, किया और फिर पूछा:
 “क्या अब सुन रहे हो छप-छप
?
 “कहाँ
?” होत्तीन-राजहँस ने पूछा.
 “अरे
, वहाँ, नदी के दूसरे मोड़ पर.”
नहीं,” होत्तीन-राजहँस ने कहा, “कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा. जंगल में ख़ामोशी ही है.”
इन्क्वोय-ऊदबिलाव ने कुछ देर और इंतज़ार किया. फिर से पूछा:
 “सुन रहे हो
?
 “कहाँ
?
 “ये
, मुहाने के पास, बिल्कुल नज़दीक के पानी में!”
 “नहीं
,” खोत्तीन-राजहँस ने जवाब दिया, “कुछ भी तो नहीं सुनाई दे रहा. जंगल में ख़ामोशे ही है. तू बेकार ही में सोच रहा है.”
 “तब
,” इन्क्वोय-ऊदबिलाव ने कहा, “अलबिदा. तेरी आँखें तुझे मुबारक, मेरे लिए तो मेरे कान ही अच्छे हैं.”
उसने पानी में डुबकी लगाई और छुप गया.
होत्तीन-राजहँस ने अपनी सफ़ेद गर्दन उठाई और गर्व से चारों ओर देखा: उसने सोचा कि उसकी तेज़ आँखें हमेशा समय रहते ख़तरे को भाँप लेती हैं, और इसलिए वो किसी भी चीज़ से नहीं डरता था.

तभी जंगल के पीछे से एक हल्की-छोटी सी नाव, शिकारी-नौका, उछलते हुए बाहर आई. उसमें एक शिकारी बैठा था.
शिकारी ने बन्दूक उठाई – और होत्तीन-राजहँस अपने पंख भी न फड़फड़ा पाया
, कि गोली की आवाज़ गूँजी.



होत्तीन-राजहँस का गर्वीला सिर पानी में गिर गया.  
इसीलिए जंगल में रहने वाले होशियार लोग कहते हैं, “जंगल में सबसे पहले हैं कान, और उसके बाद – आँखें.”
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