शुक्रवार, 20 मई 2016

Kissa Bevakoofee ka

किस्सा बेवकूफ़ी का
लेखक: मिखाईल ज़ोशेन्का
अनु. : आ. चारुमति रामदास



अब पेत्या कोई उतना छोटा बच्चा नहीं था. वह चार साल का था. मगर मम्मा उसे बिल्कुल नन्हा बच्चा ही समझती थी. वह उसे चम्मच से खिलाती, हाथ पकड़ कर घुमाने ले जाती और सुबह ख़ुद ही उसे कपड़े पहनाती. तो, उसने पेत्या को कपड़े पहनाए और उसे पलंग के पास खड़ा किया. मगर पेत्या अचानक गिर गया. मम्मा ने सोचा कि वो शरारत कर रहा है, और उसने दुबारा उसे खड़ा किया. मगर वह फिर से गिर गया. मम्मा को बड़ा अचरज हुआ और उसने तीसरी बार उसे पलंग के पास खड़ा किया. मगर बच्चा फिर से गिर गया.


मम्मा बहुत डर गई और उसने पापा को ऑफ़िस में फोन किया.



उसने पापा से कहा, “फ़ौरन घर आओ. हमारे नन्हे को कुछ हो गया है – वो पैरों पर खड़ा नहीं हो पा रहा है.”




पापा आए और बोले, “ये सब बेवकूफ़ी है. हमारा बच्चा अच्छी तरह चलता है और दौड़ता है, और ये हो ही नहीं सकता कि वह गिर जाए.”
और उन्होंने फ़ौरन बच्चे को कार्पेट पर खड़ा कर दिया. बच्चा अपने खिलौनों के पास जाना चाहता है, मगर फिर, चौथी बार, गिर जाता है.

पापा बोले, “डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा. शायद हमारा बच्चा बीमार हो गया है. शायद उसने कल ज़्यादा चॉकलेट्स खा ली हैं.”


डॉक्टर को बुलाया गया.


डॉक्टर आते हैं, चश्मा पहने, स्टेथोस्कोप लगाए. डॉक्टर पेत्या से कहते हैं:
 “ ये क्या बात हुई! तू गिर क्यों रहा है?”


पेत्या ने कहा, “मालूम नहीं क्यों, मगर थोड़ा थोड़ा गिर जाता हूँ.”
डॉक्टर मम्मा से कहते हैं:
  “बच्चे के कपड़े उतारिए, मैं अभी इसे देख लेता हूँ.”
मम्मा ने पेत्या के कपड़े उतार दिए, और डॉक्टर स्टेथोस्कोप से उसके दिल की धड़कन सुनने लगे.
डॉक्टर ने अपनी ट्यूब से उसकी धड़कन सुनी और बोले:


 “बच्चा बिल्कुल तन्दुरुस्त है. अचरज की बात है कि ये गिर क्यों रहा है. इसे फिर से कपड़े पहनाइए और खड़ा कर दीजिए.
मम्मा ने जल्दी जल्दी उसे कपड़े पहनाए और फर्श पर खड़ा कर दिया. और डॉक्टर ने फ़ौरन चश्मा पहन लिया जिससे अच्छी तरह देख सके कि बच्चा कैसे गिरता है.

मगर जैसे ही बच्चे को खड़ा किया गया – वह फ़ौरन फिर से गिर पड़ा.
डॉक्टर को बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने कहा, “प्रोफेसर को बुलाइए. हो सकता है कि प्रोफेसर ही कुछ अन्दाज़ लगा सकें, कि ये बच्चा गिर क्यों रहा है.”
पापा प्रोफेसर को फोन करने गए, और तभी पेत्या के पास उसका दोस्त छोटू कोल्या आया.

कोल्या ने पेत्या को देखा,  वह हँसने लगा और बोला:
 “मुझे मालूम है कि आपका पेत्या बारबार क्यों गिर रहा है.”

डॉक्टर बोले:
 “देखिए, कैसा छोटा सा वैज्ञानिक मिला है – ये मुझ से बेहतर जानता है कि बच्चे क्यों गिरते हैं.”
कोल्या ने कहा:
 “ज़रा देखिए तो सही, पेत्या ने कपड़े कैसे पहने हैं. पतलून का एक पाँव झूल रहा है, और दूसरे में दोनों पैर घुसे हुए हैं. इसीलिए वह गिर रहा है.”

अब तो सभी ‘आह!, आह!! और ‘ओह, ओह!!’ करने लगे. पेत्या बोला:
 “ये मम्मा ने मुझे कपड़े पहनाए हैं.”
डॉक्टर ने कहा:
 “प्रोफेसर को बुलाने की ज़रूरत नहीं है. अब समझ में आ गया है कि बच्चा क्यों बार बार गिर रहा है.”
मम्मा ने कहा, “सुबह मैं बहुत जल्दी में थी, उसके लिए पॉरिज जो बनाना था; और इस समय मैं बेहद परेशान थी, और इसीलिए मैंने उसको पतलून गलत पहना दी.”
कोल्या ने कहा, “मैं हमेशा ख़ुद ही कपड़े पहनता हूँ, और मेरे पैरों के साथ ऐसी बेवकूफ़ी कभी नहीं होती. बड़े लोग हमेशा कुछ न कुछ गड़बड़ करते ही रहते हैं.”
पेत्या ने कहा, “अब से मैं भी ख़ुद ही अपनी ड्रेस पहना करूँगा.”
सब हँसने लगे. और डॉक्टर भी हँसने लगे. उन्होंने सबसे बिदा ली, और कोल्या से भी बिदा ली.. और वे अपने काम पर चले गए. पापा ऑफ़िस चले गए. मम्मा किचन में चली गई. और कमरे में कोल्या और पेत्या रह गए.  वे खिलौनों से खेलने लगे.






दूसरे दिन पेत्या ने ख़ुद ही पतलून पहनी, और इसके बाद उसके साथ कभी भी कोई बेवकूफ़ी नहीं हुई























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Jhooth Khul Hi Jaata hai

झूठ खुल ही जाता है!
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद : आ. चारुमति रामदास

मैंने सुना कि मम्मी कॉरीडोर में किसीसे कह रही थी:
 “...झूठ हमेशा खुल ही जाता है.’
और जब वह अन्दर कमरे में आई तो मैंने पूछा:
 “मम्मी, इसका क्या मतलब है कि “झूठ हमेशा खुल ही जाता है?”
 “इसका मतलब ये है कि अगर कोई बेईमानी करता है, तो कभी न कभी इस बारे में पता चल ही जाता है, और तब उसे शर्मिन्दा होना पड़ता है, और उसे सज़ा मिलती है,..” मम्मी ने कहा. “समझ गए?...चल, सो जा!”
मैंने दाँतों पे ब्रश किया, लेट गया, मगर सोया नहीं, बल्कि पूरे समय सोचता रहा, ‘ऐसा कैसे होता है कि झूठ खुल जाता है?’ और मैं बड़ी देर तक नहीं सोया, मगर जब आँख खुली तो सुबह हो चुकी थी, पापा काम पर जा चुके थे, और मैं और मम्मी अकेले थे. मैंने फिर से दाँत ब्रश किए और नाश्ता करने लगा.


पहले मैंने अंडा खाया. ये तो फिर भी बर्दाश्त हो गया क्योंकि मैंने सिर्फ उसकी ज़र्दी बाहर निकाल ली और छिलके समेत सफ़ेदी के इतने बारीक बारीक टुकड़े कर दिए कि वह दिखे ही नहीं. मगर इसके बाद मम्मी पूरी प्लेट भरके सूजी का पॉरिज लाई.
 “ये भी है!” उसने कहा “बिना बहस किए!”
मैंने कहा:
”बर्दाश्त नहीं कर सकता ये सूजी का पॉरिज!”
मगर मम्मी चिल्लाने लगी:
 “देख, तू किसके जैसा हो गया है! बिल्कुल दुबले-पतले खूसट बूढ़े जैसा! खा. तुझे अपनी सेहत बनानी होगी.”
मैंने कहा:
 “वो मेरे गले में अटक जाता है!...”
तब मम्मी मेरी बगल में बैठ गई, कंधे पकड़ कर मुझे सीने से लगाया और बड़े प्यार से पूछा:
 “क्रेमलिन जाना चाहते हो? चलो, हम-तुम जाएंगे?”
वाह, क्या बात है...क्रेमलिन से ज़्यादा ख़ूबसूरत कोई और जगह मुझे मालूम ही नहीं है. मैं वहाँ हथियारों वाले हॉल में गया था, त्सार-तोप के पास खड़ा था, और मुझे यह भी मालूम है कि ईवान-ग्रोज़्नी कहाँ बैठता था. वहाँ और भी मज़ेदार चीज़ें हैं. इसलिए मैंने मम्मी को फ़ौरन जवाब दिया:
 “बेशक, क्रेमलिन जाना चाहता हूँ! बहुत जाना चाहता हूँ!”
तब मम्मी मुस्कुराई:
 “तो, पहले ये पूरी पॉरिज ख़त्म कर ले, फिर जाएँगे. तब तक मैं थोड़े बर्तन धो लेती हूँ. इतना याद रख – तुझे पूरा का पूरा खाना है!”
और मम्मी किचन में चली गईं.





मैं पॉरिज के साथ अकेला रह गया. मैंने उसे चम्मच से हिलाया. फिर उसमें नमक डाला. चख के देखा – ओह, खाना नामुमकिन है! तब मैंने सोचा, कि, हो सकता है, इसमें शकर कम हो गई हो? शक्कर छिड़क दी, चखा...अब तो ये और भी बुरा हो गया. मुझे तो पॉरिज अच्छा ही नहीं लगता, मैं कहता तो हूँ.
ऊपर से वह इतना गाढ़ा था. अगर वह थोड़ा पतला होता, तो दूसरी बात थी, मैं आँखें बन्द करके पी जाता. अब मैंने पॉरिज में गरम पानी डाल दिया. फिर भी वह चिपचिपा, फिसलन भरा और बेहद बुरा ही रहा, उलटी आ रही थी. ख़ास बात ये थी कि जब उसे मैं निगल रहा हूँ तो मेरा गला जैसे सिकुड़ रहा है और पॉरिज को बाहर धकेल रहा है. ख़तरनाक, अपमानजनक! मगर क्रेमलिन तो जाना है ना! और तब मुझे याद आया कि हमारे यहाँ मूली का अचार है. ऐसा लगता है कि मूली के अचार के साथ हर चीज़ खाई जा सकती है! मैंने अचार का पूरा डिब्बा पॉरिज में उंडेल दिया, मगर जब मैंने थोड़ा सा चखा तो मेरी आँखें मानो ऊपर चली गईं, साँस रुक गई, और मैं, शायद, अपने होश खो बैठा, क्योंकि मैंने प्लेट उठाई, जल्दी से खिड़की के पास भागा और पॉरिज को रास्ते पर फेंक दिया. फिर फ़ौरन वापस आकर मेज़ पर बैठ गया.
तभी मम्मी आ गई. उसने प्लेट की ओर देखा और ख़ुश हो गई:
“ओह, डेनिस, प्यारा डेनिस, अच्छा बच्चा डेनिस! पूरी पॉरिज ख़तम कर ली! तो, उठ, कपड़े पहन, वर्किंग मैन, हम क्रेमलिन घूमने जाएंगे!” – और उसने मेरी पप्पी ली.
तभी दरवाज़ा खुला और कमरे में पुलिस वाला आया. उसने कहा:
 “नमस्ते!” और उसने खिड़की के पास जाकर नीचे देखा. – “ और ये पढ़े लिखे लोग हैं.”
 “आपको क्या चाहिए?” मम्मी ने सख़्ती से पूछा.




 “शर्म आनी चाहिए!” पुलिस वाला ‘अटेंशन’ में खड़ा था. “सरकार आपको नया घर देती है, सारी सुविधाओं के साथ और, साथ ही कूड़ा डालने की पाईप भी देती है. और आप हैं कि हर तरह की गन्दगी खिड़की से बाहर फेंकते हैं!”
 “इलज़ाम मत लगाइये. मैं कुछ भी नहीं फेंकती!”

 “ आह, नहीं फेंकती हैं?!” पुलिस वाले ने ज़हरीली हँसी से कहा. और कॉरीडोर वाला दरवाज़ा खोलकर चिल्लाया: “पीड़ित व्यक्ति!”

और कोई अंकल हमारे घर में घुसा.

जैसे ही मैंने उसकी ओर देखा, मैं फ़ौरन समझ गया कि अब क्रेमलिन नहीं जाऊँगा.

इस अंकल के सिर पर हैट थी. और हैट के ऊपर – हमारा पॉरिज. वह हैट के बिल्कुल बीचोंबीच पड़ा था, गहरे वाले गड्ढे में, और थोड़ा सा हैट की किनार पर भी  था, जहाँ रिबन होती है, थोड़ा सा कॉलर के ऊपर, और कंधों पर, और बाएँ जूते पर. जैसे ही वह अन्दर घुसा, लगा हकलाने:




 “ ख़ास बात ये है कि मैं फोटो खिंचवाने जा रहा था... और अचानक ये लफ़ड़ा...पॉरिज...स् स् ...सूजी का...गरम, और ऊपर से हैट से होकर और...जला रहा है...अब मैं अपना..फ् फ् फोटो कैसे भेजूँ, जब मैं पूरा पॉरिज में लथपथ हूँ?!”

अब मम्मी ने मेरी ओर देखा, और उसकी आँखें हरी हरी हो गईं, जैसे गूज़बेरी, ये पक्का इस बात का लक्षण है कि मम्मी को बड़ा ख़तरनाक गुस्सा आया है.
  “माफ़ कीजिए, प्लीज़,” उसने धीरे से कहा, “प्लीज़ इजाज़त दीजिए, मैं आपको साफ़ कर देती हूँ, इधर आ जाइए!”

और वे सब कॉरीडोर में चले गए.

और जब मम्मी वापस आई, तो मुझे उसकी तरफ़ देखने में भी बड़ा डर लग रहा था. मगर मैंने हिम्मत बटोरी, उसके पास गया और बोला:
 “हाँ, मम्मी, तुमने कल सच ही कहा था. झूठ हमेशा खुल ही जाता है!”
 मम्मी ने मेरी आँखों में देखा. वह बड़ी देर तक देखती रही और फिर पूछा:
 “अब ये बात तुझे ज़िन्दगी भर याद रहेगी!” और मैंने जवाब दिया:
 “हाँ.”